
News9 Global Summit 2025: TV9 नेटवर्क के जर्मनी में आयोजित न्यूज9 ग्लोबल समिट में भारत और जर्मनी के रिश्तों की गहराई और भविष्य की उम्मीदों पर महत्वपूर्ण चर्चा हुई. इस समिट में ‘पैराडिप्लोमेसी’ यानी दो देशों के बीच पारंपरिक कूटनीति से परे जाकर शहरों और राज्यों के स्तर पर सहयोग को एक नए आयाम के रूप में देखा गया. इंडो-जर्मन सोसाइटी (DIG) के अध्यक्ष, सेवानिवृत्त राजदूत डॉ. जुर्गन मोरहार्ड ने इस विषय पर अपनी बात रखी.
सरकारी मुलाकातें सिर्फ एक औपचारिकता
डॉ. मोरहार्ड ने अपने संबोधन की शुरुआत ही एक चुभते हुए सवाल से की. उन्होंने कहा कि जब दो देशों के राष्ट्राध्यक्ष या मंत्री मिलते हैं, तो उसे ‘रणनीतिक साझेदारी’ जैसे भारी-भरकम नाम दिए जाते हैं. इन मुलाकातों की तैयारी महीनों पहले से नौकरशाह करते हैं और प्रेस रिलीज तो बैठक होने से पहले ही लिख दी जाती है. उन्होंने सवाल उठाया, “ईमानदारी से सोचें, क्या एक घंटे की इन औपचारिक बैठकों से सच में दोस्ती पैदा होती है? मुझे इस पर संदेह है.” उनका मानना था कि असली रिश्ते तब नहीं बनते जब कैमरे के सामने हाथ मिलाए जाते हैं, बल्कि तब बनते हैं जब दो देशों के लोग एक-दूसरे की जिंदगी का हिस्सा बनते हैं. उन्होंने पारंपरिक कूटनीति को ‘पुराने स्कूल’ की सोच बताते हुए कहा कि यह अक्सर भावनाओं से रहित और पहले से तय स्क्रिप्ट पर चलती है.
विश्वास तब बनता है जब लोग जुड़ते हैं, न कि सिर्फ सरकारें
डॉ. मोरहार्ड ने ‘पैराडिप्लोमेसी’ के विचार को भारत-जर्मनी संबंधों का भविष्य बताया. उन्होंने समझाया कि यह कोई जटिल सिद्धांत नहीं, बल्कि बेहद मानवीय और जमीनी जुड़ाव है. यह कूटनीति तब होती है जब दो देशों के शहर पार्टनर बनते हैं, विश्वविद्यालयों के बीच छात्रों का आदान-प्रदान होता है, स्कूलों के बच्चे एक-दूसरे की संस्कृति सीखते हैं या फिर सामान्य नागरिक पर्यटक के तौर पर एक-दूसरे के देश जाते हैं. उन्होंने अपने जीवन का एक बेहद मार्मिक अनुभव साझा किया. उन्होंने कहा, “मैंने अपनी आंखों से देखा है कि कैसे दूसरे विश्व युद्ध के बाद फ्रांस और जर्मनी जैसे दुश्मन देशों के बीच भरोसा दोबारा कायम हुआ. यह किसी बड़े राजनीतिक समझौते से नहीं, बल्कि शहरों की आपसी साझेदारियों से हुआ.” उन्होंने याद किया कि कैसे फुटबॉल मैचों, संगीत मंडलियों के दौरों और स्वयंसेवी फायर ब्रिगेड के आपसी भ्रमण ने उन जख्मों को भरा, जिन्हें सरकारें शायद कभी नहीं भर पातीं. उन्होंने जोर देकर कहा, “आप शांति संधियों पर हस्ताक्षर कर सकते हैं, लेकिन दोस्ती को जीना पड़ता है.”
संस्कृति, अनुभव और अपनापन.. यही है असली डिप्लोमेसी
अपने राजनयिक जीवन के अनुभवों को साझा करते हुए डॉ. मोरहार्ड ने बताया कि जब भी वे किसी एक्सचेंज स्टूडेंट, शिक्षक या स्वयंसेवक से मिलते थे, तो उनकी आंखों में एक खास चमक होती थी. यह चमक किसी दूसरे देश के परिवार के साथ रहने, उनकी भाषा सीखने और दिवाली या क्रिसमस जैसे त्योहार साथ मनाने के अनुभवों से आती थी. उन्होंने कहा कि ये छोटे-छोटे अनुभव इंसान को हमेशा के लिए बदल देते हैं. उन्होंने बताया कि कैसे इंडो-जर्मन सोसाइटी जर्मनी आने वाले भारतीय छात्रों को घर जैसा माहौल देने में मदद करती है और कैसे जर्मन परिवार अपने ही घर में भारत की विविधता, गर्मजोशी और आशावाद का अनुभव करते हैं. उन्होंने इसे ‘रोजमर्रा की जिंदगी की कूटनीति’ कहा, एक ऐसी कूटनीति जो शांत, स्थिर और गहराई से मानवीय है. उन्होंने कहा कि असली बदलाव तब आता है जब एक जर्मन परिवार किसी भारतीय छात्र की मेजबानी करता है या जब कोई युवा भारतीय जर्मनी में सिर्फ नौकरी नहीं, बल्कि एक समुदाय पाता है.
दो देशों के बीच की दोस्ती वहीं के लोग ही बढ़ा सकते हैं
डॉ. मोरहार्ड ने अपने संबोधन का अंत एक शक्तिशाली संदेश के साथ किया. उन्होंने कहा, “सरकारें समझौतों पर हस्ताक्षर कर सकती हैं, लेकिन विश्वास केवल लोग ही बना सकते हैं. सरकारें ढांचा तैयार करती हैं, लेकिन पुल तो लोग ही बनाते हैं, और लोगों द्वारा बनाए गए पुल हमेशा टिकते हैं.” उन्होंने वहां मौजूद सभी लोगों से अपील की कि वे इस मानवीय जुड़ाव का हिस्सा बनें, ताकि भारत और जर्मनी के आधिकारिक रिश्ते एक जीवंत और गहरी दोस्ती में बदल सकें. यह पैराडिप्लोमेसी कोई दोयम दर्जे की कूटनीति नहीं, बल्कि कूटनीति की आत्मा है, जो बाकी सब कुछ संभव बनाती है.